Brand Washed Full book summary In Hindi


Brandwashed: Tricks
Companies Use to Manip…
Martin Lindstrom
इंट्रोडक्शन

क्या आप पहले से ही बैंडवाश्डहैं ? मार्टिन लिंडस्ट्रॉम एक प्रोफेशनल मार्केटर हैं जिन्हें ब्रैन्डिंग की दुनिया में 20 का अनुभव है. वो कई दशकों से मार्केटिंग एक्जीक्यूटिवके साथ मिलकर सेल्स को सिक्योर रखने के लिए कैंपेनऔर स्ट्रेटेजीबनाते आए हैं. मार्टिन कहते है कि ब्रैड इंडस्ट्री एक ऐसी चीज़ है जिससे लोग बच नहीं सकते, क्योंकि आज हम चारो तरफ बैंड से घिरे हुए है. हमारे खाने से लेकर, हम क्या पहनेंगे, कौन सी किताबें पढ़ेंगे और कौन सा कंप्यूटर इस्तेमाल करेंगे, ये सब ब्रैन्डिंग से डिसाइड होता है. आज बैंड इंसान की पहचान बन गए है और ये लोगों को ये बता रहे है कि हम कौन है और हमें क्या बनना चाहते है. मार्टिन ने अपने करियर में कई साल कंपनीज़ के सीईओज़, एडवरटाईजिंग एक्जीक्यूटिव्स, मार्केटिंग गुरुज़ के साथ मिलकर काम किया है. हालाँकि वो खुद को एक कंज्यूमर और मार्केटर्स की ट्रिक्स का शिकार मानते है.
यही वजह है कि मार्टिन ने बँड डेटोक्स करने की कोशिश की. वो खुद को ब्रांड्स का शिकार होने से बचाना चाहते है इसलिए वो सिर्फ वही चीज़े इस्तेमाल करते है जो पहले से उनके पास मौजूद है. मार्टिन ने खुद को ही चेलेंज किया और अपने ब्रेकफ़ास्ट से लेकर शेविंग क्रीम और रेजर ब्रांड्स यहाँ तक कि अपने हेयर ज़ेल से बैंड डेटोक्स की शुरुवात की.

सब कुछ ठीक चल रहा था कि छह महीने बाद सायप्रस में उनका ये चेलेंज खुद खत्म हो गया. अपने अनुभवों
से मार्टिन लिंडस्ट्रॉमसमझ चुके थे कि वो पूरी तरह सेब्रैड पर निर्भर है. इससे उन्होंने अंदाजा लगाया कि वो
असल में पहले से ही ब्रैंडवाश्ड है. इस किताब में मार्टिन लिंडस्ट्रॉम हमें बतायेंगे कि कैसे कॉर्पोरेशन और उनके मार्केटरसाईंकोलोजिकल टैक्टिस प्लान करके हमारे मन के अंदर बसे डर, उम्मीद और हमारी डिजायर्स का फायदा उठाते है ताकि हम उनके बैंड और प्रोडक्टको खरीद सके. ये किताब आपकी आँखे खोल देगी जब आप पढ़ेंगे कि मार्केटिंग की दुनिया में जो भी स्ट्रेटेजी होती है, वो सब मार्केटर क्रिएट करते है. ब्रैंडवाश्डएक ऐसी किताब है जो आपको मार्केटिंग और ब्रैन्डिंग से जुड़ी हर जानकारी तो देगी है और साथ ही आपको इंस्पायर भी करेगी ताकि आप एक बेहतर और रेशनल कंज्यूमर चॉइस रख सके. तो आप तैयार है एक स्मार्ट और better कंज्यूमर बनने के लिए? तो चलिए हम मिलकर उन स्ट्रेटेज़ीज़ के बारे में जानने की कोशिश करते है जो मार्केटर हमें बैंडवाश्डकरने के लिए इस्तेमाल कर रहे है.

Brandwashed: Tricks
Companies Use to Manip…
Martin Lindstrom
When Companies start Marketing to
us in the womb

ज्यादातर बैंड और प्रोडक्ट की हमारी जो चॉइस होती है, वो ग्यारह साल की छोटी उम्र से ही बननी शुरू हो
जाती है. हालाँकि मार्टिन लिंडस्ट्रॉमदावा करते है कि अक्सर चार या पांच साल की उम्र से ही हम ब्रैड conscious हो जाते है. हाल ही में हुई एक स्टडी के अनुसार हमारे जन्म से पहले ही हमें बैंड की दुनिया से परिचय करा दिया जाता है. क्योंकि मार्टिन अच्छी तरह जानते है कि कैसे ये मार्केटर माँ के पेट में पल रहे बच्चे को भी अपना प्रोडक्ट बेच सकते है, तो वो हमें कुछ ऐसी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के बारे में समझाते है जहाँ म्यूजिक और स्मेल का इस्तेमाल किया जाता है. म्यूजिक feotal मेंमोरी यानी अजन्मे शिशु की
मेमोरी को ट्रिगर कर सकते है, और इसीलिए जो म्यूजिक बच्चा माँ के पेट में रहते हुए सुनता है, उस पर
ऐसा असर करता है जो बड़े होने पर उसके टेस्ट तक इन्फ्लुएंस कर सकता है. जब एक माँ लगातार एक
ख़ास तरह का म्यूजिक सुनती है तो उसके पेट में पल रहा बच्चा भी सुन रहा होता है और वो उस म्यूजिक
 लगता है.

वही दूसरी तरफ स्मेल हमारे ब्रेन का सबसे इम्पोर्टेट सेन्स है. माँ के पेट में बच्चे को जो स्मेल फील होती है,
वही उन्हें बाहरी दुनिया से पहला परिचय कराती है और बच्चा कुछ खास तरह की खुशबूओं और स्वाद के प्रति
आकर्षित होने लगता है जो बड़े होने के बाद उसकी पसंद और टेस्ट को काफी हद तक प्रभावित करती है.
यानी हम कह सकते है कि माँ के गर्भ में पल रहे इन बच्चो को कुछ इस तरह प्रोग्राम कर दिया जाता है कि
उन्हें खास तरह म्यूजिक और साउंड से परिचय कराकर उनकी पसंद-नापसंद तय कर दी जाती है. यहाँ हम एक एक्जाम्पल लेंगे कि कैसे ये एडवरटाईजर उन बच्चो को अपना निशाना बनाते है जो अभी तक पैदा भी नहीं हुए. एशिया के एक बड़े से शॉपिंग सेंटर में मार्केटर्स ने उनके स्टोर में आने वाली प्रेग्नेंट औरतों को टारगेट किया. मॉल में जहाँ कपड़े बेचे जाते थे, वहां हर जगह जॉनसन एंड जॉनसन बेबी पॉवडर छिड़का गया और जहाँ लोग खाने-पीने की चीज़े लेते थे वहां पर चैरी की खुशबू वाला सेंट छिड़का इसके साथ ही शॉपिंग मॉल में मन को सुकून म्यूजिक भी प्ले किया जाने लगा. माँल एक्जीक्यूटिव्स को पूरी उम्मीद थी कि इससे प्रेग्नेंट औरतों ज्यादा से ज्यादा उनका सामान खरीदेंगी. और  कार एक करीब एक साल तक चले इस एक्सपेरीमेंट के बाद मॉल को उन मदर्स के लैटर्स आने लगे जो प्रेगनेंसी के दौरान मॉल में शौपिंग करने गई थी, इससे प्रूव होता है कि उन बच्चों पर मॉल का कितना हिप्नोटिक इफेक्ट पड़ा था. और नतीजा ये हुआ कि एशियन खरीददारों का एक बड़ा तबका अनजाने ही उस शॉपिंग सेंटर की तरफ आकर्षित होता था. बच्चो को टारगेट बनाने वाली मार्केटिंग के हिट होने के दो खास कारण है. पहला तो ये कि, जो टेस्ट या मेमोरी हमारे साथ बचपन में जुड़ जाती है, वो बड़े होने पर हमारी आदतों में खुद ब खुद शामिल हो जाती है. दूसरी बात, इन्सान हमेशा उन चीजों के प्रति आकर्षित होता है जो उसे सुकून और शान्ति देती है, जो उसे एक सुरक्षित फील कराती है. यही वजह है कि मार्केटर अपने फ्यूचर कस्टमर बनाने के लिए उन्हें कम उम्र से ही टारगेट करना शुरू कर देते है ताकि वो जिंदगी भर उनके लॉयल कस्टमर बने रहे.

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Companies Use to Manip…
Martin Lindstrom
Why Fear Sells

डर के प्रति हम नैचुरली अट्रेक्ट होते है क्योंकि इसके पीछे हमारा बायोलोजिकल फाउंडेशन ज़िम्मेदार है.
हमारा डर हमारे अंदर बेचैनी जगाता है जिससे बॉडी में अड्रेनालाइन प्रोडक्शन होरमोन और एंजाइम बनता है
जो एक तरह से हमें प्लेज़र फील कराता है. बॉडी को जब कोई खतरा महसूस होता है तो हमारा ब्लड बॉडी के कुछ खास हिस्सों में जमा होने लगता है जिससे दिमाग तक ब्लड सप्लाई नहीं हो पाती है. अब क्योंकि respiratory response यानी हमारा श्वासन तंत्र दिमाग तक ब्लड की पूरी सप्लाई नहीं होने देता है तो हमारा दिमाग ठीक से काम नहीं कर पाता, ऐसे वक्त में हमें कुछ भी सोचने और समझने में दिक्कत आती है.
मौत, बीमारी, अकेलापन, जर्स, रीजेक्शन वगैरह को लेकर जो हमारे मन में डर होता है, वो इतना पॉवरफुल
होता है कि हमारे सामान खरीदने के डिसिशन को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है. मार्केटर्स और एडवरटाईजर्स इस बात को बखूबी जानते है इसलिए वो इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते
है. यहाँ हम कुछ एक्जाम्पल लेंगे, आपको ये दिखाने के लिए कि किस तरह ब्रांड्स ने डर के अलग-अलग रूपों का फायदा उठाते हुए हम अपने प्रोडक्ट्स बेचते है.

2003 में जब ग्लोबल पेनिक हुआ, उस दौरान लोगों के मन में एक अनसुने और नए बैक्टीरिया का डर
फैला हुआ था जिसका नाम था एसएआरएस और स्वाइन फ्लू. लोग इतने घबराए हुए थे कि मार्केटर्स ने
अपने प्रोडक्ट बेचने इके लिए इसे एक सुनहरे मौक़े की तरह देखा और इसका खूब फायदा उठाया.
हालाँकि ये एंटीबैक्टीरियल क्लीनिंग ज़ेल एसएआरएस और स्वाइन फ्लू जैसे रोगों की रोकथाम नहीं कर
सकते थे और ना ही लोगों को इनसे बचा सकते थे, पर एक अनदेखे खतरनाक बैक्टीरिया का डर लोगों
के दिमाग में हावी हो चुका था. लोग सोचे-समझे बिना धड़ाधड़ ऐसे प्रोडक्ट खरीद रहे थे जो मार्केट में
एंटीबैक्टीरियल के नाम से बिक रहे थे. लोगों को ये भी नहीं पता था कि ये प्रोडक्ट इफेक्टिव है भी या नहीं
फिर भी लोग खरीदे जा रहे थे और प्रोडक्ट बनाने वालों ने इस तरह खूब मुनाफा कमाया.
इस ग्लोबल पेनिक के बाद सबसे ज्यादा बिकने वाले Purellhand sanitizer की सेल से रेवेन्यू में
50% का ईज़ाफा हुआ. Clorox disinfecting wipes की सेल भी 23% तक बढ़ गई थी.
सफाई का एक हव्वा बनाकर ये मार्केटर बड़ी चालाकी से लोगों को ये यकीन दिलाने में कामयाब रहे कि
सिर्फ उनके प्रोडक्ट ही लोगों को सेफ और सुरक्षित रख सकते है और बीमार पड़ने से बचा सकते है.

पेंडेमिक के अलावा मार्केटर्स हमारी कुछ ऐसी इनसिक्यरीटीज़ का भी फायदा उठाने से बाज़ नहीं
आते, जिनके बारे में हमें मालूम तक नहीं होता. जैसे Dove का “Go Sleeveless” कैंपेन ही
ले लो जहाँ बदसूरती को लेकर हमारे अंदर जो इनसिक्योरीटी होती है, उसे टारगेट किया गया है. डव
कंपनी दावा करती है कि इसकी मॉइस्चराइजिंग क्रीम हमारे अंडरआर्स को साफ और खुशबूदार बना देगी.
दरअसल कंपनी एक मार्केटिंग स्ट्रेटेजी यूज़ कर रही थी जिसे “empowerment-via-shame”यानी
शर्मिंदगी का इस्तेमाल कर empower करना कहा जाता है. ये मार्केटर्स व्यूवर्स के मन में एक डर और
इनसिक्योरीटी पैदा करते है, जिससे व्यूवर को महसूस होता है जैसे सिर्फ उनके ही आर्मपिट गंदे और बदबूदार है जिसकी वजह से उन्हें शर्मिंदा होना पड़ेगा. एमपॉवरमेंट वाया शेम अप्रोच की तीन स्टेज है:
1. मार्केटर किसी प्रोब्लम को टारगेट और एक्पोज़ करते है जिस पर आमतौर पर हमारा ध्यान नहीं गया
होता है..
2. मार्केटर कंज्यूमर के दिमाग में डर और घबराहट क्रिएट करके सिचुएशन को एक प्रोब्लम की तरह दिखाने की कोशिश करते है.

3. फिर वो हमें उस प्रोब्लम का सोल्यूशन बेचते है. ये एक्जाम्पल प्रूव करता है कि कैसे हमारे दिमाग में डर
को बैठा दिया जाता है और हमारे ज़्यादातर डर बेवजह होते है. असली डर वही होता है जहाँ जिंदगी और मौत
का सवाल हो, यानी असल में जब आपकी जिदंगी के ऊपर कोई खतरा मंडरा रहा हो. बदबूदार आर्मपिट होने से ना तो हम मरेंगे और ना ही हमारे करीबी लोगों की जान खतरे में पड़ने वाली है. हालाँकि पर्सनल हाईजीन का ध्यान रखना कोई बुरी बात नहीं है, आपकी बगले साफ़-सुथरी और खुशबूदार है तो ये अच्छी बात है. पर ये उतनी बड़ी और डरावनी प्रोब्लम भी नहीं है जितना कि मार्केटर अपने एडवरटीज़मेंट में दिखाते है. हर इन्सान के अपने अलग-अलग डर होते है. जैसे कोई जॉब चली जाने से डरता है, किसी को बिल्स भरने का
डर सताता है तो कोई अकेलेपन से डरता है, या फिर कोई इस बात से डरता है कि वो अपने बच्चे का प्रॉपर
ख्याल नहीं रख पायेगा, डर के ना जाने कितने ही रूप है. लेकिन ये सब डर पर्सनल है और मन की गहराईयों में बसे होते है. यही वजह है कि हमारा डर आसानी से बिक जाता है. हम सोचते है जब तक हम नहीं बताएँगे
किसी को हमारा डर मालूम नहीं चलेगा पर ऐसा नहीं है, मार्केटर हमारे इन डरों को ढूंढ-ढूंढ कर बाहर निकालते है और इसका फायदा उठाते है.

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Brand Addicts, shopaholics, and
why we can’t live without our smartphones

किसी हैबिट या प्रोडक्ट को लेकर हमारे एडिक्शन के पीछे हमारी बॉडी में बनने वाला एक हॉर्मोन डोपामाइन जिम्मेदार है जो असल में बॉडी का फील गुड हॉर्मोन है. जब भी दिमाग में रीवार्ड की फीलिंग आती है, डोपामाइन रिलीज़ होता है. डोपामाइन एक ऐसा हॉर्मोन है जो आपको गुलाम या एडिक्ट बना सकता है. जब हम लागातर कोई ऐसी एक्टिविटी या काम करते है जिससे हमें डोपामाइन मिलता रहे तो हमें उस एक्टिविटी या काम की लत लग जाती है. इसलिए हम अच्छा फील करने के लिए बार-बार वही काम करने लगते है. जिस पल हम उस एक्टिविटी को लगातार करना शुरू करते है, बॉडी में डोपामाइन बनना शुरू हो जाता है. और हम धीरे-धीरे एडिक्ट बनते चले जाते है, और ये एडिक्शन फिर जिंदगी भर हमारा पीछा नहीं छोडती. एक बेसिक एक्जाम्पल लेते है, जब भी आप अपना फ़ोन यूज़ करते हो, आपका ब्रेन आपको आपके फोन से जुडी कोई अच्छा अनुभव याद कराता है. अब चाहे वो मेमोरी हो आपके जॉब मिलने की या प्रोमोशन की, या फिर कोई रोमांटिक मेमोरी जैसे आपको अपने कश का कोई मैसेज मिला हो.

मेमोरी कुछ भी हो सकती है पर अच्छी है तो आपका ब्रेन आपको रीमाइंड कराता रहेगा और आप दोबारा
से वही मैसेज पाने की उम्मीद बार-बार करते है, यही वजह है कि हम अपने मोबाइल फोन्स से इतने अटैच्ड
होते है. इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद मार्टिन लिंडस्ट्रॉमने फैसला किया कि वो पता लगाकर रहेंगे कि हमारी सिंपल हैबिट्स एडिक्शन में कब बदलती है. इसे समझने के लिए मार्टिन ने फिलिप मोरिस इंटरनेशनल के एक फॉर्मर सीनियर एक्जीक्यूटिव से बात की-जोकि एक सिगरेट मेन्यूफेक्चरिंग कंपनी है. फिलिप मॉरिस के सीनियर एक्जीक्यूटिव रह चुके एक शख्स ने एक मॉडल के ज़रिए समझाया कि एक ब्रैंड कैसे अपने कंज्यूमर को अपने जाल में फंसाते है. ये दो स्टेज में किया जाता है, रूटीन स्टेज और ड्रीम स्टेज. रूटीन स्टेज तो होता है जहाँ हम जो ब्रैड या प्रोडक्ट खरीदते है, वो पहले से हमारी डेली एक्टिविटी का
हिस्सा होते है. जैसे कि हम रोजाना नहाते वक्त साबुन और शैम्पू का इस्तेमाल करते है, खाना जो हम रोज़
ब्रेकफ़ास्ट में खाते है, टूथपेस्ट जिससे हम रोज़ दांत ब्रश करते है या डिटरजेंट जिससे हम रोज़ अपने कपड़े धोते है. रूटीन स्टेज में हम डेली प्रोडक्ट खरीद कर यूज़ करते है और खत्म होने पर दोबारा खरीद लेते है. क्योंकि ये प्रोडक्ट हमारे रोज़मर्रा की जरूरतों में से एक है.

अगला है ड्रीम स्टेज, जो हमारे रूटीन लाइफ से एकदम अलग है. ड्रीम स्टेज वो होती है जहाँ हम प्रोडक्ट अपनी जरूरतों के लिए नहीं बल्कि पसंद से खरीदते है. जो चीज़ हमें पसंद आती है, हम खरीद लेते है चाहे हमें उसकी जरूरत हो या ना हो. ड्रीम स्टेज वो पीरियड होता है जहाँ हम सबसे ज्यादा रिलेक्स फील करते है. चाहे उस वक्त हम किसी बीच में हो या कॉन्सर्ट में या स्पा में या गोल्फ खेल रहे हो. इसलिए वो प्रोडक्ट जो हम अपने ड्रीम स्टेज में खरीदते है जैसे, कॉकटेल ड्रिंक्स, वाफेल्स, सोडा, टी, कोई जूलरी या कपड़े वगैरह, ये सब चीज़े अब हमारे ड्रीम स्टेज के आईडिया से जुड़ने लगती है. इसलिए जब भी रूटीन स्टेज आती है हम हमेशा ड्रीम स्टेज की चीज़ों के लिए तरसते रहते हैं. और इसलिए अपनी इस क्रेविंग को रोकने के लिए हम
वो सारे प्रोडक्ट खरीद लेते है जो हमारी ड्रीम स्टेज से जुड़े है. जो हमने अभी आपको बताये थे. यानी कुल मिलाकर हम अपने ड्रीम स्टेज में एक खास ब्रैड को पसंद करने लगते है. फिर हम उस प्रोडक्ट को
अपनी रूटीन स्टेज में शामिल करने की कोशिश करते है और धीरे-धीरे अपनी रुटीन स्टेज में उस प्रोडक्ट का इस्तेमाल शुरू कर देते है, और फिर जल्द ही हमें उस प्रोडक्ट की लत लग जाती है. फिर हम उस प्रोडक्ट को ताउम्र इस्तेमाल करते रहते है. हम खुद नहीं जानते कि ये लत कब छूटेगी. अब हमें ये मालूम है कि मार्केटर्स हमारे हॉर्मोन को यूज़ करके हमें अपने प्रोडक्टबेचते है. लेकिन सवाल ये है कि हम उन्हें अपनी इच्छा और साईंकोलोजी का इस्तेमाल करके मुनाफा कमाने से कैसे रोक सकते है?

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The New Face of Sex in Advertising

Sexually suggestive एडवरटीज़मेंट का मेन गोल होता है अपने कंज्यूमर के माइंड में उम्मीदे और
सपने जगाना. जब भी हम कोई ऐसा एड देखते है जहाँ यंग कपल एनर्जी ड्रिंक या कॉस्मेटिक या अंडरवेयर
बेचते दिखते है तो हमारे ब्रेन के न्यूरोंस हमारे अंदर ऐसी फीलिंग्स पैदा करते हैं कि हमें भी उनकी तरह जवान और खूबसूरत दिखने का मन करता है और हमारी यही इच्छा हमें उन प्रोडक्ट्स को खरीदने के लिए मजबूर कर देती है. डॉक्टर जेफ्री मिलर के अनुसार आदमी और औरत दोनों में ही उस वक्त प्रोडक्ट खरीदने की ज्यादा ईच्छा होती है जब सेक्स और डेटिंग का विचार उनके दिमाग में पहले से ही होता है. हम यहाँ आपको एक एक्जाम्पल दे रहे है जो मार्टिन लिंडस्ट्रॉमकी इस बात को साबित करता है कि सेक्स बिकता है.
दुनिया के सबसे बड़े कार बनाने वाले में से एक ब्रैंड की सेल्स को बढ़ाने के लिए मार्टिन ने उस ब्रैंड
के टारगेट कंज्यूमर को एक्सप्लोर करने का फैसला किया. सबसे पहले उन्होंने टारगेट कंज्यूमर पर फोकस किया:

मिडल एज मर्द जो 23 सालो से शादी-शुदा थे, हर आदमी को दो सौ कार्ड दिए गए जिनमें अलग-अलग
जानवरों की तस्वीरे बनी थी. उन्हें कहा गया कि वो पांच ऐसे जानवर चूज़ करे जो उनके हिसाब से उस कार ब्रैंड को बेस्ट रीप्रेजेंट करते थे. एमआरआई न्यूरो इमेजिंग यूज़ करके मार्टिन की टीम के रीसर्चर ने देखा जो पहले चार जानवर लोगों ने चूज़ किये थे, वो सब बिजनेस से रिलेटेड थे पर जब उन्हें पांचवा जानवर यानी अरेबियन घोडा नजर आया तो उनके ब्रेन का एक हिस्सा एक्टिव हो उठा. असल में ब्रेन का ये पार्ट सेक्सुअल अट्रैक्शन और मेटिंग से जुड़ा होता है. मार्टिन रिजल्ट से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे तो उन्होंने कंज्यूमर को उनकी ड्रीम कार की पिक्चर दिखाई और वो ये देखकर हैरान रह गए कि फिर से ब्रेन के उसी हिस्से में हलचल हो रही थी. इससे साफ ज़ाहिर था कि इन मिडल एज मर्दो के subconscious माइंड में कार और घोड़े सेक्स की भावना से कनेक्टेड थे. इस रिजल्ट के बाद कार बैंड ने अपने नए कार के मॉडल में अरेबियन घोड़े के फीचरइंस्टाल कर दिए. ब्रैड ने कार को एक बढिया smooth, सेक्सी कर्व और मूवमेंट देने पर फोकस किया जिससे ड्राइवर को ऐसा महूसस हो जैसे वो एक तेज़, पॉवरफुल और खूबसूरत जानवर की सवारी कर रहे हो.

और जो नतीजे आये, वो चौंकाने वाले थे. कार के इंजन से लेकर स्टाइल, और लुक तक सब कुछ सेक्सी था.
ब्रैड की हिस्ट्री में ये अब तक का सबसे ख़ास सेल्स डेवलपमेंट था जब इसने चार साल बाद मार्केट में फिर
से धूम मचा दी. हालाँकि सेक्स हमेशा से ही ओल्ड फैशंड मार्केटिंग का हिस्सा रहा है, पर ये स्ट्रेटेजी आज भी उतनी ही इफेक्टिव है चाहे किसी के मन की गहराईयों में छुपी ईच्छाओं की बात हो या ऐसे प्रोडक्ट्स बेचने की बात हो जो हमें और ज्यादा डिजायरेबल और अट्रेक्टिव बना सके, ये बात साबित करती है कि हम इंसान आज भी सेक्सुअल एनिमल है जिनकी सेक्स fantasy यूज़ करके मार्केटर हमें अपने प्रोडक्ट बेचते रहेंगे.

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The Power of Peers

कंज्यूमर बार-बार एक ही तरीके से बिहेव करता है. पँछियों और दीमक की तरह हम में भी एक सोशल
अवेयरनेस होती है जो हमें दूसरों की नकल करने और उनकी तरह ही बिहेव करने पर मजबूर करती है.
हमारे अंदर की इंसानियत का एक छोटा सा हिस्सा ऐसा भी है जो चाहता है कि हमें अपनाया जाए, हमें
कनेक्टेड फील कराया जाए. हम इन्सानों में अपने पूर्वजों की तरह ही एक नैचुरल ईच्छा रहती है कि हम
एक ट्राइब, एक झुण्ड में रहे. ये हमारे सर्वाइवल का एक पार्ट है. इसका एक ख़ास उदाहरण हमें तब देखने को मिलता है जब कोई प्रोडक्ट खरीदते वक्त हम दूसरों की राय के बारे सोचते है, चाहे ये दूसरे लोग अजनबी ही क्यों ना हो. ओपिनियन रिसर्च द्वारा एक पोल कंडक्ट किया गया, जहाँ सिक्सटी परसेंट लोगों ने कहा कि वो कोई भी प्रोडक्ट खरीदने से पहले ब्लॉग या दूसरे कंज्यूमर के रीव्यू पढ़ते है. हमारी जिंदगी को हमारे पीयर्स कैसे इन्फ्लुएंस करते है, ये देखने के लिए हम इस एक्जाम्पल की हेल्प लेंगे. रॉबर्ट चलडीनी (Robert Cialdini,) जो एक ऑथर और सोशल साईंकोलोजिस्ट , उन्होंने डिसाइड किया कि वो एक एक्सपेरिमेंट करेंगे कि हमारी जिंदगी में हमारे पीयर्स का कितना पॉवरफुल इन्फ्लुएंस रहता है.

रॉबर्ट ने एक रूम में कई वालेंटियर इकठ्ठा किये और उनसे एक सर्वे फॉर्म फिल करने को कहा. दरअसल
ये सर्वे इस एक्सपेरीमेंट का मेन गोल नहीं था बल्कि इसका मेन गोल ये जानना था कि कैसे हम अपने
आस-पास के लोगों से प्रभावित होते है. सबसे पहले, researchers ने डेस्क पर एक कूकीज़ से भरा जार रखा और वहां मौजूद लोगों को कुकीज़ ऑफर की. बदकिस्मती से टोटल नंबर में से सिर्फ वन फिफ्थ लोगों ने ही कुकीज़ ली. इसके बाद researchers ने कुकीज़ का लगभग खाली हो चूका ज़ार सेम डेस्क पर रखा, ये दिखाने के लिए कि सर्वे लेने वालो को ऐसा लगे जैसे सारी कुकीज़ ले ली गई हो. हालाँकि रिजल्ट अब भी सेम था, अभी भी सिर्फ वन फिफ्थ लोगों ने ही कुकीज़ उठाई. एक्सपेरिमेंट के लास्ट में एक researcher कूकी जार के पास बैठ गया. इससे पहले कि वो कुकीज़ ऑफर करता एक अजनबी कमरे में आया और उसने सबके सामने खुद ज़ार से कूकी निकाली और वापस कमरे से बाहर चला गया.हैरानी तो तब हुई जब इसके बाद रीसर्चर ने कमरे के बाकि लोगों को भी कुकीज़ ऑफर की तो इस बार सबने एक-एक कुकीज़ ली.

इस कूकी जार ट्रायल से साबित हुआ कि हम जाने-अनजाने दूसरों की ईच्छाओं पर चलते है.जितना
हम दूसरों को कोई प्रोडक्ट खरीदते या डिमांड करते देखते है, उतना ही हम भी उस प्रोडक्ट को पसंद करना
शुरू कर देते है. इससे एक बार प्रूव होती है कि एक इंसान के तौर पर हम कलेक्टिव स्पीशी है जो भेड़चाल पर यकीन रखते है. इससे ये भी पता चलता है कि हम खुद अपने एक्शन या डिसीजन नहीं बदलते बल्कि दूसरों को देखकर और उनसे तुलना करने के बाद ही अपनी चॉइस बनाते है.

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The End of Privacy

डेटा माईनिंग एक फ़ास्ट ग्रोईंग ग्लोबल बिजनेस है जो कंज्यूमर बिहेवियर को नालाईज़ करने पर फोकस
करते है. ये कंज्यूमर्स के डेटा के जरिये उनके बारे में जानकारी जुटाती है, जिससे लोगों को प्रोडक्ट
खरीदने के लिए उकसाया जा सके. इन डेटा माईनिंग कंपनीज़ का मुख्य मकसद प्रेडिक्ट करना है कि कस्टमर अब आगे कौन सा प्रोडक्ट खरीदेगा. इस तरह की जानकारी हासिल करके, मार्केटर ऐसे नए प्रोडक्ट क्रिएट करते है या एडवरटीज़मेंट बनाते है जो कंज्यूमर की जरूरते पूरी कर सके. ऐसे पहली मार्केटिंग कंपनी बनने की काबिलियत रखना जो ये नया प्रोडक्ट ऑफर कर सके, बहुत जरूरी
है. डेटा के अनुसार हर बार कंज्यूमर जब कोई नया प्रोडक्ट ट्राई करता है तो इस बात की पूरी उम्मीद है कि
वो उसे कम से कम डेढ़ साल तक यूज़ करेगा. इससे पता चलता है कि कंपनीज़ जितने नए प्रोडक्ट
निकालेगी उतनी ही उनकी सेल्स बढ़ेगी. क्या आप ये सोच कर हैरान हो रहे है कि ये डेटा माइनर
डेटा कैसे कलेक्ट करते है? अक्सर आपके फेवरेट रेस्ट्रोरेन्ट, ग्रोसरी स्टोर या मेडिकल शॉप में आपको लॉयल्टी कार्ड मिलते है, ये कार्ड कई तरह के होते है,जैसे रीवार्ड कार्ड, सेविंग कार्ड, डिस्काउंट कार्ड वगैरह.

एक आम आदमी के पास कम से कम ऐसे पंद्रह लॉयल्टी कार्ड होते है जो उसे अलग-अलग लोकल
स्टोर से मिले होते है, और उसे लगता है इस कार्ड की बदौलत वो अपनी शौपिंग में काफी सेविंग कर लेगा.
हालाँकि ये लॉयल्टी कार्ड सिर्फ छोटी-मोटी बचत के लिए नहीं होते, इन कार्ड्स का मेन गोल कस्टमर्स को
और ज्यादा शॉपिंग के लिए ललचाना होता है ताकि कंपनी को और मुनाफा हो. एक बार लॉयल्टी कार्ड लेने के बाद आप स्टोर को अपनी पर्सनल इन्फोर्मेशन प्रोवाइड करा देते है जैसे एज, जेंडर, आपकी चॉइस वगैरह.
आप जितनी बार भी ये कार्ड्स इस्तेमाल करते हो, स्टोर को पता चल जाता है कि आपने क्या खरीदा. यहाँ तक कि उन्हें ये भी पता चल जाता है कि वो प्रोडक्ट आपने कब लिया और कितने में लिया है. ये सारा डेटा कलेक्ट करके एक डिजिटल फोल्डर में स्टोर कर लिया जाता है जहाँ इसे वीकली, मंथली और ईयरली बेसिस पर ऑर्गेनाईज़ किया जाता है. फिर ये आपके बाइंग बिहेवियर के हिसाब से तय कर लेते है कि आपका अगला प्रोडक्ट क्या होगा. असल में आज हम एक पोस्ट प्राइवेसी सोसाईटी में रह रहे है- एक ऐसा युग जहाँ पर्सनल प्राइवेसी के अब कोई मायने नहीं रह गए है और कोई भी हमारी निजी जिंदगी में ताक-झाँक कर सकता है.

दुनिया लगातार टेक्नोलोजिकल और डिजिटल डेवलपमेंट की तरफ बढ़ रही है, और अगर ऐसा ही
चलता रहा तो आज नहीं तो कल हमारे लिए डेटा माइनर से छुटकारा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
हो जाएगा जो हमारी प्राइवेसी में दखल देने की लगातार कोशिश करते रहते है. चाहे हम इन सब डिजिटल एप्लीकेशंस से कितने ही दूर चले जाए या अपने क्रेडिट कार्ड डीएक्टिवेट कर ले, पर हम डिजिटल एज के चंगुल से बच नहीं सकते क्योंकि हम पहले से ही बैंडवाश्डहै.

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Conclusion

ये किताब आपको सिखाती है कि कैसे बैंड और कंपनियाँ अलग-अलग तरीको से कई तरह के कैंपेन
और स्ट्रेटेज़ी के जरिए हमें अपने प्रोडक्ट खरीदने के लिए बैंडवाश्डकर रही है. आपने ये भी सीखा कि कंपनीज़ अपने कैम्पेन में म्यूजिक और साउंड का इस्तेमाल करके प्रेग्नेंट औरतों को टारगेट करके अपने प्रोडक्ट्स बेचने की कोशिश करती है. आपने इस किताब में ये भी पढ़ा कि अपने मन में छुपे डर और इनसिक्योरीटी की भावना के चलते हम रेशनल और लोजिकल डिसीजन नहीं ले पाते. आपने इस किताब में ये भी सीखा कि कैसे सिंपल हैबिट धीरे-धीरे एडिक्शन बन जाती है जो फिर सारी जिंदगी हमारा पीछा नहीं छोडती.. साथ ही आपने ये भी पढ़ा कि सेक्सुअल प्रोवोकेटिव एडवरटीज़मेंट किस तरह से आदमी और औरतों को अपना निशाना बनाते है. आपने पीयर प्रेशर के पीछे की असलियत को समझा

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